माँ के नाम
मैं वही हूँ ,
जो तुम्हारे आँचल की छाँव में,
प्यार और दुलार में,
पली-बढ़ी,
नन्ही कली से फूल बनकर खिली,
तब तुमने सुन्दर सपने देखे,
मेरे लिए ,
वही सपने जो हर माँ देखती है ,
एक बेटी के लिए,
तुम्हारे भी सपने पूरे हुए ,
तुम खुश थी ,
जब मैं दुल्हन बनी थी ,
तुम्हारे पाँव जमीं पर नहीं थे,
खुशियों को समेटे हुए तुम ,
प्रतीक्षारत थी ,
उस पथिक के लिए,
जो मेरा हमसफर था,
तुम्हीं ने तो चुना था उसे ,
मेरे लिए ,
शहनाईयों की गूंज के साथ,
परम्पराओं, रीति-रिवाजों के बाद,
तुमने मुझे विदा किया,
मेरे अपनों के साथ,
तब तुम रोई थी,
मैं भी रोई थी,
पर क्यों ?
तुम्हीं तो भेजना चाहती थी,
मेरे घर,
जो कभी अनजाना था,
और मैं भी तो जाना चाहती थी ।
पर माँ !
मुझे तो जाना ही था ,
जहाँ तुम मुझे भेजना चाहती थी,
अपने अरमानों की डोली में बिठाकर ,
दूर , एक अनजाने डगर से,
उस मंजिल तक,
जहाँ मेरी मंजिल थी ,
फिर दोनों की आँखों में आँसू क्यों ?